★परमात्मा का स्वरूप ★
सच्चिदानंद
आदि ,अनादि, अनंत ,
दिव्य, पवित्र ,अनुपम ,अभय
अद्भुत,अकल्पनीय,अजन्मा,अजर,अमर सर्वसमर्थ,
सर्वव्यापक, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान,सर्वान्तर्यामी,
कृपाकारी,दयाकारी ,सर्वप्रिय,सर्वकर्ता,सर्वकारण,
अव्यक्त,निराकार ,सर्वाकार ,निरापद,
निर्लिप्त सरल,सरस,सर्वाश्रय ,
हितकारी,न्यायकारी,सर्वेश्वर है- -श्री परमेश्वर
एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति
(एक ही ईश्वर है दूसरा नहीं)
आत्मा अजर -अमर है
पुनर्जन्म होता है
मोक्ष ही जीवन का लक्ष्य है,
कर्म का प्रभाव होता है,इसीलिए कर्म ही भाग्य है
संस्कार बद्ध जीवन ही जीवन है,
ब्रह्मांड अनित्य और परिवर्तनशील है,
संध्यावंदन-ध्यान ही सत्य है,
वेदपाठ और यज्ञकर्म ही धर्म है,
छ: कर्म-
देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान ही पुण्य है।
संसार रूपी वृक्ष के दो बीज है :-
पाप और पुण्य
संसार रूपी वृक्ष के घोंसले में दो पक्षियों का निवास है :-
जीव और ईश्वर
संसार रूपी वृक्ष के दो फल है :-
सुख और दुःख
◆ नवधा भक्ति ◆
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
श्रवण:-
ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।
कीर्तन:-
ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।
स्मरण:-
निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।
पाद सेवन:-
ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना।
अर्चन:-
मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन:-
भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
दास्य:-
ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
सख्य:
-ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
आत्मनिवेदन:-
अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।
नवधा भक्ति के श्रेष्ठत्तम उपासक:-
श्रवण =(परीक्षित)
कीर्तन= (शुकदेव)
स्मरण= (प्रह्लाद)
पादसेवन= (लक्ष्मी)
अर्चन = (पृथुराजा)
वंदन= (अक्रूर)
दास्य = (हनुमान)
सख्य= (अर्जुन)
आत्मनिवेदन= (बलि राजा)
★भगवान् के 12 प्रधान भक्त (द्वादश परम भक्त) ★
संसार में यु तो भगवान् के बहुत से भक्त हुए है पर सब भक्तो में( द्वादश भागवत भक्त) १२ प्रधान भक्त:-
श्रीब्रह्मा जी
श्री देवर्षि नारद जी
श्री शंकर जी
सनकादिक जी
श्री कपिलदेवजी
श्री मनु जी
प्रह्लाद जी
श्री जनक जी
भीष्म पितामह जी
दानव राज बलि
श्री शुकदेव परमहंस
श्री यमराज जी
भगवान् विष्णु के १६ नित्य पार्षद है जो उनकी सेवा में निरंतर लगे रहते है:-
१-विश्वकसेन ●२- जय ●३-विजय ●४- प्रबल
५- बल ●६- नन्द ●७- सुनन्द ●८- सुभद्र ●९- भद्र
१०- प्रचण्ड ●११- चण्ड ●१२- कुमुद ●१३- कुमुदाक्ष
१४- शील ●१५- सुशील ●१६- सुषेण
=========★ -ॐ- ★=========
ब्रह्म साक्षात्कार, या सत्य ,लक्ष्य प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण योग मार्ग :--
★ज्ञान योग ◆कर्म योग ◆ भक्ति योग★
●अन्य १० प्रकार के योग :-
• राज योग •अष्टांग योग• हठ योग • लय योग
• ध्यान योग •भक्ति योग •क्रिया योग •
मंत्र योग • कर्म योग •
•ज्ञान योग •
इसके अलावा भी धर्म योग, तंत्र योग, नाद योग आदि का उल्लेख भी है |
★ छ: प्रकार की मुक्ति★
●सार्ष्टि (ऐश्वर्य)● सालोक्य (लोक की प्राप्ती)
● सारूप (ब्रह्म स्वरूप)● सामीप्य (ब्रह्म के पास)
●साम्य (ब्रह्म जैसी समानता)
● सायुज्य (ब्रह्म में लीन हो जाना)
*ब्रह्मलीन हो जाना ही पूर्ण मोक्ष है*
ब्रह्मयज्ञ
नित्य संध्यावंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से ऋषियों का ऋण अर्थात 'ऋषि ऋण' चुकता होता है। इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्ट होता है।
देवयज्ञ
देवयज्ञ जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है।(अर्थात यज्ञ होम करना) हवन करने को 'देवयज्ञ' कहा जाता है|अग्निहोत्र यज्ञ से 'देव ऋण' चुकता होता है।
पितृयज्ञ
धर्मानुसार हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव,श्रद्धा व सत्य निष्ठा द्वारा किए गए श्राद्धकर्म ,पिण्ड, तर्पण से तथा सन्तानोत्पत्ति से।यह यज्ञ सम्पन्न होता है। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है। पुराणों में इसे श्राद्ध कर्म कहा गया है |
वैश्वदेवयज्ञ (इसे भूत यज्ञ भी कहते हैं)
पंच महाभूत से ही मानव शरीर है।सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा भाव और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना तथा भोजनार्थ कुछ अंश अग्नि ,गौ , श्वान ,कौआ आदि को देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है।
अतिथि यज्ञ
अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक , सैनिक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है।
★सप्त चिरंजीवी महामानव★
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात - अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान जी, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम जी ये सात चिरंजीवी (अजर अमर) महापुरूष है ,और इन सात महापुरुषों के नाम के साथ ही श्री मार्कडेंय ऋषि के नाम का जाप या स्मरण करने से व्यक्ति निरोगी रहता है और दीर्घायु प्राप्त करता है।
आदि गुरु- माता, पिता और प्रकृति
सांसारिक गुरु-विद्या दाता- शिक्षक गण
आध्यात्मिक गुरु- मंत्र दीक्षक(ब्रह्म मंत्र बीजक)
★मानव कर्म धर्म★
●संध्यावंदन ● व्रत(उपवास) ● तीर्थ सेवन
●उत्सवआयोजन ● दान ● सेवा ●संस्कार
●यज्ञ(हवन)●वेद पाठ●धर्म प्रचार
श्री भगवान कहते है :-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ||
सर्वधर्मान् = सर्व धर्मो को अर्थात् संपूर्ण कर्मोंके आश्रय को ; परित्यज्य = त्यागकर ; एकम् = केवल एक ; माम् = मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा की ही ; शरणम् = अनन्य शरणको ; व्रज = प्राप्त हो ; अहम् = मैं ; त्वा = तेरे को ; सर्वपापेभ्य: = संपूर्ण पापों से ; मोक्षयिष्यामि = मुक्त कर दूंगा ; मा शुच: = तूं शोक मत कर ,
अर्थात -
सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्याग कर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ।
विश्व प्रसिद्ध खाटूधाम में श्री खाटूनरेश ,श्री श्याम बाबा की प्रेरणा से रींगस रोड पर सनातन धर्म सेवा समिति "आध्यात्मिक सिद्धि साधना जन कल्याण केंद्र के रुप में उत्तर भारत का प्रथम "श्री स्वर्णाकर्षण शक्तिपीठ " के निर्माण कार्य में आप भी सहयोग कीजिए और सहयोग की प्रेरणा भी दीजिये * ●जय सनातन, जय श्री राधे , जय श्री श्याम●
* संस्थापक *
आचार्य- भगवत् शरण भगवान जी महाराज
भागवताचार्य,ज्योतिष ,वेदांत ,वास्तु व
यज्ञानुष्ठानविद्