|| ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री भुवनेश्वर्यै नमः ||
बाल रवि द्युतिमिन्दु किरीटां तुंगकुचां नयनत्रय युक्ताम |
स्मेरमुखींवरदांकुश पाशा भीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम ||
देवी प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद ,प्रसीद मातर जगतो$खिलस्य|
प्रसीद विश्वेश्वरी पाहिविश्वम, त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ||
समस्त ब्रह्मांड नायिका,दशमहाविद्याओं की अधिष्ठात्री सात करोड़ महामंत्रों से सेवित,जगत-जननीआद्याशक्ति भगवती पराम्बा मणिद्वीप की स्वामिनी चौदह भुवन व काल चक्र को संचालित करने वालीअव्यक्त,व्यक्तरूपा,विश्वेश्वरी,सर्वेश्वरी,जगतकर्त्री,जगद्धात्री,जगन्नाथी,काली,कमला,विमला,बगला,त्रिपुरसुन्दरी,ब्रह्मविद्या गायित्री, शताक्षी, शाकम्भरी स्वरूपा माँ भुवनेश्वरी अपने भक्तों को संतान,विद्या,उच्चपद,सत्ता सुख ,विजय, ऐश्वर्य तथा समस्त सुखों को देने वाली है |
सर्वमंगल्य मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके |
शरण्ये त्र्यम्बिके गौरि नारायणी नमोस्तुते ||
एक बार मधु-कैटभ नामक महा दैत्यों ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर हाहाकार मचा रखा था, तब सभी देव मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उनको अपनी निद्रा का त्याग करने के लिए प्रार्थना करने लगे ताकि वे जल्दी से उठकर मधु-कैटभ को मारकर उनकी रक्षा करें। भगवान विष्णु ने निद्रा का त्याग किया तथा जागृत हुए और उन्होंने पांच हजार वर्षों तक मधु-कैटभ नामक दैत्यों से युद्ध किया। बहुत अधिक समय तक युद्ध करते हुए भगवान विष्णु थक गए और वे अकेले ही युद्ध कर रहे थे। अंत में उन्होंने अपने अन्तः कारण की शक्ति योगमाया आद्या शक्ति से सहायता के लिए प्रार्थना की तब देवी ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे उन दोनों दैत्यों को अपनी माया से मोहित कर देंगी। योगमाया आद्या शक्ति की माया से मोहित हो कर दोनों दैत्य भाईयों ने भगवान विष्णु से कहा कि हमारा वध ऐसे स्थान पर करो जहां न ही जल हो और न ही स्थल—तब भगवान विष्णु ने दोनों दैत्यों को अपनी जंघा पर रख कर अपने चक्र से उनके मस्तक को देह से अलग कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मधु-कैटभ का वध किया परन्तु वे केवल निमित्त मात्र ही थे। उसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और शंकर ने देवी आदिशक्ति योगनिद्रा महामाया की स्तुति की , जिससे प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने ब्रह्मा जी को सृजन, विष्णु को पालन और शंकर को संहार का दायित्व सौंपा। ब्रह्मा जी ने देवी आदिशक्ति से प्रश्न किया कि अभी चारों ओर केवल जल ही जल फैला हुआ हैं, पंच-तत्व, गुण, तन्मात्राएं, इन्द्रियां आदि कुछ भी व्याप्त नहीं हैं और तीनों देव शक्ति-हीन हैं।
देवी ने मुस्कुराते हुए उस स्थान पर एक सुन्दर विमान को प्रस्तुत किया और तीनों देवताओं को विमान पर बैठ अद्भुत चमत्कार देखने का आग्रह किया गया। तीनों देवों के विमान पर आसीन होने के पश्चात वह दिव्य विमान आकाश में वायु की गति से उड़ने लगा तथा निर्जन स्थानों से होता हुआ एक सागर के तट पर जा पहुंचा। वहां का दृश्य अत्यंत मनोहर था और अनेक प्रकार के पुष्प वाटिकाओं से सुसज्जित था। तभी वहां देवों ने एक पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए देखा। देवी ने रक्त-पुष्पों की माला और रक्ताम्बर धारण कर रखी थीं। वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्रा धारण किए हुए देवी भुवनेश्वरी,त्रि-देवों के सन्मुख दृष्टि-गोचर हुई जो सहस्रों उदित सूर्य के प्रकाश के समान दिव्य कान्तिमयी थी। ये सब देखने के बाद भगवान विष्णु ने अपने अनुभव से शंकर तथा ब्रह्मा जी से कहा कि ये साक्षात देवी जगदम्बा महामाया है और इसके साथ ही यह देवी हम तीनों और सम्पूर्ण चराचर जगत की कारण रूपा हैं। तीनों देव भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने के निमित्त उनके चरणों के निकट गए। तीनों देवों ने देवी के चरण-कमल के नख में सम्पूर्ण जगत को देखा। ये सब देखने के बाद त्रिदेव यह समझ गए की देवी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जननी हैं।
देवी भागवत में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी हृल्लेखा “ह्रीं” मन्त्र की स्वरूपा शक्ति और सृष्टि क्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा – आदिशक्ति भगवती भुवनेश्वरी भगवान शिव के समस्त लीला-विलास की सहचरी हैं। जगदम्बा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अंग कान्ति अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियाँ प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दशमहाविद्याओं में ये पाँचवें स्थान पर परिगणित हैं।
देवी पुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। ईश्वररात्रि में ईश्वर के जगद्रूप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त स्वरूपा प्रकृति के साथ शेष रहता है, तब ईश्वररात्रि की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी कहलाती हैं।अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध हैं। अंकुश नियंत्रण का प्रतीक है और पाश राग (आसक्ति) का प्रतीक है। इस प्रकार सर्वस्वरूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्वरी हैं, जो विश्व को वमन करने के कारण वामा, शिवमयी होने से ज्येष्ठा तथा कर्म का नियंत्रण ,फलदान और जीवों को दण्डित करने के कारण रौद्री कही जाती हैं। भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी कहलाता है। भुवनेश्वरी के संग से ही भुवनेश्वर सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है।
महानिर्वाणादि तन्त्र ग्रंथों के अनुसार सम्पूर्ण महाविद्याएँ भगवती भुवनेश्वरी की सेवा में सदा संलग्न रहती हैं। सात करोड़ महामन्त्र इनकी सदा आराधना करते हैं। दशमहाविद्याएँ ही दस सोपान हैं। काली तत्त्व से निर्गत होकर कमला तत्व तक की दस स्थितियाँ हैं जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्माण्ड का रूप धारण कर सकती हैं तथा प्रलय में कमला अर्थात व्यक्त जगत से क्रमश: लय होकर काली रूप में मूल प्रकृति बन जाती हैं। इसलिए इन्हें काल की जन्मदात्री भी कहा जाता है।
काली और भुवनेशी दोनों एक ही है ,अव्यक्त प्रकृति भुवनेश्वरी ही रक्तवर्णा काली हैं।श्रीमद देवीभागवतम के अनुसार दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचार से संतप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालय पर सर्व -कारण स्वरूपा भगवती भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी।उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्वरी तत्काल प्रकट हो गईं। वे अपने हाथों में बाण आदि कमल-पुष्प तथा शाक-मूल लिए हुए थीं। उन्होंने अपने नेत्रों से अश्रु जल की सहस्त्रों धाराएँ प्रकट कीं। इस जल से भूमण्डल के सभी प्राणी तृप्त हो गये। समुद्रों तथा सरिताओं में अगाध जल भर गया और समस्त औषधियाँ सिंच गईं। अपने हाथ में लिये गये शाक ,कंद,मूल ,फलों से प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुवनेश्वरी ही शताक्षी(सहस्त्र आंखों) शाकम्भरी( विश्व का भरण पोषण करने वाली)नाम से विख्यात हुईं। इन्होंने ही दुर्गमासुर को युद्ध में मारकर उसके द्वारा अपहृत वेदों को देवताओं को पुन: सौंप दिया था, अतः भगवती भुवनेश्वरी का एक नाम दुर्गा प्रसिद्ध हुआ।
आधारभूता जगतस्त्वमेका ‘त्वयैतत् धार्यते विश्वम्
(आप इस ब्रह्माण्ड की आधार हो)
सृष्टि स्थिति विनाशानां-शक्तिभूते सनातनि’
(आप इस चराचर जगत की रचना, पालन तथा संहार करती हो)
‘हेतुः समस्त जगतां त्रिगुणापिदोषैः’(आप समस्त जगत का कारण हो।